मर्ज़-ए-इश्क़ का बीमार भी क्या होता है LYRICS
मर्ज़-ए-इश्क़ का बीमार भी क्या होता है
जितनी करता है दवा, दर्द सिवा होता है।
जिस का हामि वो शह-ए-हर्द-ओ-सरा होता है,
क़ैद-ओ-बंदे दो जहाँ से वो रिहा होता है।
उनका इरशाद है इरशाद ख़ुदा, बंद-ए-जहाँ,
ये वही कहते हैं जो रब का कहा होता है।
पल्ला नेकी का इशारे से बढ़ा देते हैं,
जब करम बंदा नवाज़ी से तुला होता है।
हमने यूँ शम-ए-रिसालत से लगाई है लौ,
सब की झोली में तो उन्हीं का दिया होता है।
ऐसी सरकार है भरपूर जहाँ से ले लो,
रोज़ एक मेला नया दर पे लगा होता है।
दोनों हाथों से लुटाते हैं ख़ज़ाना लेकिन,
जितना ख़ाली करें, उतना ही भरा होता है।
बेकस-ओ-बेबसो-बे-यारो-मददगार जो हो,
आप के दर से शहा सब का भला होता है।
आप महबूब हैं अल्लाह के ऐसे महबूब,
हर मोहिब आप का महबूब-ए-ख़ुदा होता है।
जिस गली से तू गुज़रता है मेरे जान-ए-जीना,
ज़रा-ज़रा तेरी ख़ुशबू से बसा होता है।
कब ग़ुल-ए-तैबा की ख़ुशबू से बसेंगे दिल-ओ-जाँ,
देखिए कब करम-ए-बाद-ए-सबा होता है।
दाग़-ए-दिल में जो मज़ा पाया है नूरी तुमने,
ऐसे दुनिया की किसी शय में मज़ा होता है।